सोमवार, 1 अप्रैल 2013

मुफलसी ने बनाया कालगर्ल

प्रतीक चित्र

मेरा नाम नाजनीन है, घर में प्यार से मुझे सब नाजो कहकर बुलाते थे। मेरे वालिद रिक्शा चलाकर परिवार का पेट पालते थे। मां अनपढ़, घरेलू और धार्मिक महिला थी। मुझसे पांच और तीन वर्ष बड़ी दो बहनें तथा मेरे बाद आठ और सात वर्ष छोटे दो भाई हैं। मैंने बचपना घोर निर्धनता में काटा। मैंने और मुझसें पांच वर्ष बड़ी बहन महजबी जिसे मैं बाजी कहती थी, ने पाचवीं तक पढाई की। घर के करीब ही नगर-महापालिका का सरकारी स्कूल था, अतः मामूली खर्च और फीस में हमने इतना पढ लिया था। प्राईमरी से आगे की पढाई का बोझ उठाने में घर वाले किसी भी तरह समर्थ थे, अतः पढाई रूक गयी थी।
बाजी मेहनती स्वभाव की थी, पाचवीं पास करने के कुछ दिनों बाद बुक बाइडिंग के लिए फर्मे मोड़ने का कार्य घर लाकर करने लगी। मां भी हाथ बटाने लगी, घर में चार पैसे आने लगे। वक्त गुजरता रहा समय के साथ महजबी बाजी के पन्द्र्रह-सोलह साल की होते-होते मां-बाप ने अपने ही स्तर के एक मेहनतकश मजदूर पेशा, बिरादरी के युवक से बाजी का निकाह कर दिया।
निकाह के बाद कुछ समय तक बाजी की दुल्हा-भाई के साथ अच्छी कटी। तीन साल गुजर जाने के बाद भी बाल-बच्चा हुआ तो सारा दोष मेरी बहन को दिया जाने लगा। इसी बीच दुल्हा भाई ज्यादा कमाई करने के चक्कर में दिल्ली जाकर रहने लगे। दिल्ली में वह झुग्गी-झोपडि़यों में रहकर गुजारा करते हुए कुछ आमदनी बढाने का जरिया खोजते-खोजते उनका झुग्गी-झोपड़ी की ही एक औरत से आंख लड़ गयी।
औरत से आंख लड़ने के बाद वह जहां हफ्ते-हफ्ते आकर बाजी को खर्च दे जाते थे। अब वह महीना-महीना तक पलटकर देखना भी बंद कर दिया। बाजी तंगी में रहने लगी तो वालिद को चिंता हुई। दुल्हा भाई के पते पर बाजी के साथ मुझे भी लेकर गए। हम दोनों को वहां पहुचा कर वालिद लौट आए। दुल्हा भाई की नजर तो फिर ही चुकी थी। बाजी से बचने के लिए हफ्तों-हफ्तों के लिए गायब हो जाते। धीरे-धीरे उनकी तबियत में बिल्कुल लापरवाही और निठल्लापन आता गया। लिहाजा खोली का भाड़ा, परचूनिये का हिसाब चढता रहा, लेनदार तकाजे कि लिए बाजी के पास आने लगे। उन्हीं में एक थे रमजानी मियां।
रमजानी मियां की उम्र चालिस के आस-पास थी। दुल्हा भाई के घर के पास ही उनकी लकडि़यों की टाल थी। अच्छी आमदनी थी। उनका खाना-पीना अच्छा था। सेहत अच्छी थी। धीरे-धीरे हमदर्दी बढाते-बढाते वह घर में फल-फ्रूट लाते और घंटा-घंटा बैठकर बाजी से मुस्कराकर बात करने के साथ बेतकल्लुफी भी बढानी शुरू कर दी थी।
रमजानी मियां की हमदर्दी ने बाजी पर ऐसा असर चढा़या कि वे समय-असमय उनकी लकड़ी की टाल पर किसी ने किसी जरूरत से जाने लगी। एक रात वह भी आयी जब मैं झुग्गी के पार्टीशन वाले कमरे में सो रही थी। वह जाड़े की रात थी, कोई दस बजे का समय रहा होगा। एक नीद मैं ले चुकी थी। दरवाजे पर हल्की सी आहट हुई तो मैं समझी दुल्हा भाई चोरी से आये होंगे। सांकल खुली दबे पांव अन्दर आने वाले रमजानी मियां थे।
झुग्गी की पार्टीशन वाले कमरे को बांस का टहर और टाट के परदे लगाकर पार्टीशन का रूप दिया गया था। एक चारपाई भर की छोटी सी जगह थी। वहां बर्तन-भाड़े, कपड़े-लत्ते रखे जाते थे। इसी कमरे को गुसलखाने के रूप में भी इस्तेमाल में लाया जाता था। मुझे पिछले दो दिनों सो बाजी ने वहीं साने की सलाह दे रखी थी। वैसे भी जब दुल्हा भाई रात को देर-सवेर घर आते थे, मुझे वहीं पार्टीशन वाले कमरे में सो के लिए भेज दिया जाता था। बाजी दूल्हा भाई झुग्गी में टिमटिमाता हुआ मरियल रोशनी फैलाने वाला बल्ब बुझाकर एक साथ सो जाते थे। रमजानी मियां रात दस बजे के बाद, चोरी से झुग्गी में आये तो मेरी उत्कठां बढ़ी। मेरे कान सजग हो गये। अनेकों प्रश्न मस्तिष्क में मंडराने लगे। आते ही उन्होनें बाजी से पूछा, ‘‘नाजो तो सो गयी होगी?’’
‘‘जवानी की नींद है, घोडे़ बेचकर सो रही होगी..... ’’ बाजी ने फुसफुसाकर बताया था। इस बात को सुनते ही रमजानी मियां बेधड़क बढ़कर बाजी को अपने बाहुपाश में ले लिया। फिर बाजी के कपोलों को चूमते हुए रमजानी मियां के हाथ बाजी के बेहद कामातुर, उन्नत वक्षों पर दौड़ने लगे।
यूं तो बाजी के तन्दरूस्त जिस्म का हर अंग भरा-भरा, गठीला और सुडौल था। पर उनके वक्ष कुछ ज्यादा ही ठोस और उभारदार थे। जिनके आकार को दुपट्टे के आवरण से भी छुपाया नही जा सकता था। मुझे लेकर जब वह बाजार जाती तो मर्दो की नजरें उनके वक्षों के उभार का जायजा लेती हुई वस्त्रों के पार तक टटोलने की चेष्टा करती रहती थी।
रमजानी मियां अपने हाथों को हरकतें देकर खुद को गरमाते हुए बाजी की भी ठंडक भगाने लगे। एक समय वह आया जब उन्होंने बाजी को पूरी तरह कपड़ों के कैद से आजाद कर दिया। अब बाजी की चिकनी मासल पीठ, सुडौल तना वक्ष रमजानी मियां के हाथों और मंुह की रहकतों से ठोस हो चुके यौवन की खूबसूरती मेरी आंखों में नाचने लगी।
मेरी खाट टटरे से लगी हुई बिछी थी। टाट के परदे के झरोखे से मैं सारा दृश्य देख रही थी। बाजी रमजानी मियां से बार-बार रोशनी बुझाने का आग्रह कर रही थी। जबकि रमजानी मियां कह रहे थे, ‘‘आज  मैं तुम्हारे हुस्न और यौवन भरपूर नजरों से देखकर अपनी प्यास बुझाना चाहता हूं मेरी जान..... इतने दिनों से तो ऊपर-ऊपर से पत्ते फेटकर खुद को तसल्ली देता रहा हूं.... आज असली पत्ते फेटने का मामला ऐसे ही चलेगा... मैं तुम्हारे गुदाज, ठोस जिस्म के रेशे-रेशे को देखकर अपनी प्यास बुझाना चाहता हंू... ’’
‘‘हाय अल्लाह!’’ बाजी शरमा गयी थी।
प्रतीक चित्र
खैर मैं इस बात को तो समझ गयी थी कि दोनों के बीच खिचड़ी कई दिनों से पक रही है। मैने रमजानी मियां को जिस्मानी तौर पर जितना हृष्ट-पुष्ट देखा था। उतना ही वह अपने असली जोश में सुस्त रफ्तार के घोड़े साबित हुए थे। ऐसा घोड़ा जो चाबुक की मार या लगाम की खींच-तान पर ही दौड़ के लिए तैयार होता है। बाजी उनकी मेहरबानियों के बदले हर वह स्थान और युक्ति इस्तेमाल कर रही थी, जिसे रमजानी मियां चाह रहे थे। उनको खुश करते हुए बाजी अपने मतलब की बात पर आते हुए बोली, ‘‘आप हमारा कर्ज नही अदा कर सकते?’’
‘‘मैं सौ रूपए हफ्ता से तुम्हारी मदद कर सकता हंू। अपना किराया समझो मैने तुम पर छोड़ा, मगर तुम्हें मुझे बराबर खुश करते रहना होगा। एक मुश्त परचूनियां तथा दूसरों का डेढ़-दो हजार का कर्ज अदा करना फिलहाल मेरे लिए मुश्किल है।’’
‘‘सौ रूपए हफ्ता ही सही। मैं धीरे-धीरे लोगों का कर्ज उतारती रहूंगी।’’
‘‘अगर तुम मेरी मानो, अगर तुम दस दिनों तक पूरी रात मेरी टाल की कोठरी में आकर साने को तैयार हो जाओ तो मैं तुम्हारा सारा कर्जा उतारवाकर डेढ़-दो हजार रूपए अलग से कमवा सकता हूं।’’
‘‘हाय अल्लाह.... नही-नही आपसे तो बस दिल लग गया इसलिए..... वरना मैं ऐसी नही हूं। मेरी तो दुर्गति बन जाएगी।’’
‘‘एक मशवरा और है..... ’’ अपनी केलि-क्रीड़ा के मध्य कहा था रमजानी मियां ने, ‘‘गरीबी जादू की छड़ी के घुमाने की तरह दूर हो जायेगी.... हजारों-लाखों में खेलने लगोगी।’’
‘‘वह क्या?’’
‘‘अपनी बहन नाजों को घंघे में उतार दो। मेरे यहां जो ठेकेदार आता है.... ’’
‘‘शेखर बाबू.... ’’
‘‘हां.... उसने नाजों को देखा हैं। मुझसे कह रहा था उस छोकरी को पटा दो, एक रात का पांच हजार दे सकता हूं।’’
अपने विषय में रमजानी का प्रस्ताव सुन मेरा दिल धाड़-धाड़ करने लगा। जी चाहा रहा था कि रमजानी का मुह नोच लूं पर, उनकी उस समय की आनन्दमय क्रिया देखने के पीछे सब अहसास दब गए थे। बाजी का उत्तर सुनने के लिए मैंने सांसे रोक ली। वह कह रही थी।
‘‘अल्ला कसम रमजानी मियां, हमारे यहां यह सब नही चलता.... ’’
‘‘तुम मूर्ख हो.... ’’ रमजानी ने बाजी के गालों को थपकाकर चुटकियों से मसलते हुए कहा, ‘‘तभी घर में ठीक से चूल्हा नही जलता.... मैं तुम्हें झुग्गी-झोपड़ी का नही अपने खुद के मकान-मालिक होने का रास्ता बता रहा हूं। मेरे सम्पर्क में दर्जनों ऐसी हसीन, ऊंचे घराने की कहलाने वाली लडकियां है जो शराफत को चोला धारण किये रहती है, पर रात को दो-चार घंटे के लिए धंधे पर उतरती है और हजारों रूपए माहवार कमाकर ठाठ-बाट की जिन्दगी गुजारती है। मुझे भी कमीशन के तौर पर आमदनी कराती है।’’
रमजानी मियां ने ऐसा पटाया कि बाजी एकदम विरोध करने के बजाय सोच-विचार में पड़ गयी। बाजी को सोचते देख रमजानी मियां बोले, ‘‘बताया नही..... ’’
‘‘सोचकर बताऊंगी.... ’’ बाजी ने कहा, ‘‘पता नही नाजो राजी होगीे या नही.... ’’
‘‘मेरे पास घंटे-आधे घंटे के लिए भेजना आरम्भ कर दो। मैं उसे राजी कर लूंगा।’’
‘‘उसे भी खराब कर दोगे।’’
‘‘कसम से.. अपने लिए इस्तेमाल नही करूगा.. एकदम तैयार करके पांच हजार रूपए कमवाउगा।’’
खैर, अब मैं बाजी का मामला कुछ शब्दों के बाद ड्राप करती हूं। रमजानी मियां ने बाजी के हाथ मे दो सौ रूपये, तथा अलग से दो सौ मेरे नाम पर थमाते हुए कहा था, ‘‘नाजो को अच्छा सा कपड़ा बनवा देना। वह खुश हो जाएगी।’’
बाजी चार सौ रूपए खुशी-खुशी स्वीकार कर उन्हें रूखसत किया था। अगले दिन बाजी का व्यवहार मेरे प्रति बहुत बदल गया था। वह मेरा अधिक ख्याल रखते हुए रमजानी मियां के प्रसंशा के पुल बांध रही थी। एक दिन दोपहर के समय उन्होंने मुझे सूखी लकडि़या ले आने के बहाने रमजानी की टाल पर भेजा। उस दिन मौसम का मिजाज बिगड़ा हुआ था। सुबह से ही रह-रहकर बूंदा-बादी हो रही थी। मैं जल्दी-जल्दी टाल पर लकडि़या लेने गयी। टाल पर मौसम की खराबी की वजह से कोई ग्राहक नही था। इसलिए पूरी तरह सन्नाटा फैला हुआ था। टाल पर मुझे आया देख रमजानी मियां खिल उठे और मुस्कराकर स्वागत भाव दर्शाते हुए बोले, ‘‘ आजा..... आजा नाजो....  आज तो बड़ी अच्छी लग रही हो।’’
‘‘सूखी लकडि़यों के लिए बाजी ने भेजा है रमजानी मियां चाचा... ’’ मैं उन्हें रमजानी चाचा ही कहती थी।
‘‘हां..हां..क्यों नही.....उधर कोने में, शेड के नीचे की लकडियां पूरी तरह सूखी और पतली है...जितना चाहो निकाल लो।’’
मुझे उन्होंने टाल के ऊंचे चट्टे के पीछे भेजा। खुद गेट के पास जाकर गेट बन्द कर आये। मेरा दिल धक-धक कर रहा था। हकीकत यह थी कि मैं उस आनन्द की अनुभूति स्वयं करना चाहती थी, जिससे बाजी को गुजरते देख चुकी थी। टाल के ऊंचे चट्टों के पीछे, कुछ अंधेरा भी था, पर ऐसा नही कि कुछ दिखायी देता हो। रमजानी मियां उस समय तहमत, बनियान में थे। ठीक मेरे पीछे गये। मुझे इशारा करके वह सूखी पतली लकडि़यां बताने लगे। मेरे हाथ लकडि़यां निकालने के लिए बढ़े तब पीछे से आकर वह मुझसे एकदम सटकर खड़े होते हुए लकडि़यां निकालने में मेरी मदद करते-करते उन्होंने मेरा हाथ थामते हुए कहा, ‘‘तू तो बड़ी ही खूबसूरत है नाजो.... ’’
मेरे दिल की धड़कने बढती जा रही थी। कुछ घबराहट हो रही थी। मैने हाथ छुड़ाना चाहा तो वे और निकट आकर मुझे पीछे से चिपटाकर बोले, ‘‘मैं तेरी जिन्दगी संवार दूगा, मैं चाहता हूं तू अपनी बाजी की तरह तंगी और अभावों में जिये, ऐश कर ऐश.... ’’ कहकर वे मेरे उभारों को सहलाने लगे।
प्रतीक चित्र
मैं बार-बार नही-नही कहती रही, मगर उस नही में हर पल मेरी हां शामिल थी। यह बात वे भी जानते थे। तभी तो मेरे बराबर इंकार करने के बाबजूद वह मुझे उठाकर कोने में पडे़ गद्दा तकिया लगे तख्त पर ले गये। मुझे लिटाकर चूमना आरम्भ किया तो मेरे तन-बदन में जैसे आग लग गयी थी फिर भी मैने इससे आगे उन्हें नही बढने दिया और अलग होकर उठ खड़ी हुई। उन्होंने कोई विरोध नही किया, पचास का नोट मेरे हाथ में पकड़ाते हुए बोले, ‘‘बाजी को मत बताना.... अपने ही ऊपर खर्च करना, फिर जब भी आओगी इतना ही मिलेगा।’’
मैं हवा में उड़ती घर पहुंची। बाजी ने कुछ पूछताछ नही की और मैंने भी अपनी तरफ से उन्हें  कुछ बतना जरूरी नही समझा। अगली शाम फिर बाजी ने मुझे लकडि़यां लाने रमजानी के यहां भेजा और बोली, ‘‘अगर तुझे आने में देर हो जाय तो फिक्र मत करना, रमजानी मियां जो कहें कर देना, उनके बहुत एहसान है हम पर.... ’’
मैने सर हिलाकर हामी भर दी। मैं रमजानी के टाल पर पहंुची। मुझे दिखते ही वह खिल उठे और गेट बंद कर दिया। उस रोज टाल में एक मोटरसाइकिल भी खड़ी थी, जाने कौन आया था।
‘‘नाजो क्या तू नही चाहती तेरे पास खूब दौलत हो, जेवर हो, मकान हो.... ’’
‘‘चाहती क्यों नही, मगर चाहने से क्या होता है।’’
‘‘चाहने से ही होता है। अगर तू मेरा कहना मान तो दो हजार तो मैं तुझे आज ही दिलवा सकता हूं और आगे भी ऐसे ही मौके दिलवाता रहूंगा।’’
‘‘दो हजार.... ’’ मेरी धड़कने बढ़ गई। मैं चुप रही, मैं खुद भी किसी मर्द का साथ पाने को तड़प रही थी मगर वह मामला अटपटा लग रहा था। रमजानी मियां मुझे किसी अंजान व्यक्ति के साथ सुलाना चाहता था। जो ना मालूम किस तरह पेश आता। मै डर रही थी मगर दो हजार रूपयों के लोभ से मुंह मोड़ना मेरे लिए असम्भव था। फिर भी मैने रमजानी से आश्वासन ले लिया कि वह बगल के कमरे में मौजूद रहेगा। यही मेरे कालगर्ल जीवन की पहली शुरूआत थी।
उस दिन जिस युवक के बिस्तर पर मैने अपना कौमार्य लुटाया, वह मेरा परमानेंट ग्राहक बन गया। अगले दस दिनों तक लगातार वह रमजानी के टाल पर आता रहा। दस दिनों में बीस हजार रूपये की कमाई ने मेरा दिमाग खराब कर दिया। मैं धंधे में रमती चली गई। मैने वह सब कुछ पाया जिसकी मैने जीवन में आकांक्षा रखी थी। नहीं मिला तो सिर्फ शकून। आज हर वक्त मैं अपने भीतर एक अधूरेपन का एहसास महसूस करते हुए अकेले में आंसू बहाया करती हूं।
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